मौत-ओ-हयात
(अज़ीमुद्दीन अहमद)
एक धोका है समझते हो जिसे मौत-ओ-हयात
ग़ौर से देखो न जीता है न मरता कोई
आह कुछ खेल नहीं आलम-ए-इम्काँ का वजूद
ज़र्रे-ज़र्रे में चमकता है ख़ुद-आरा कोई
पर्दा-ए-आलम-ए-तकवीं में छुपा कर ख़ुद को
अंजुमन-बंद हुआ है चमन-आरा कोई
आप हर रंग में करता है तमाशा अपना
याँ न गुलशन है न दरिया है न सहरा कोई
मौत वो खेल है जिस में नहीं छीना-झपटी
न ख़ुशी से मगर इस खेल को खेला कोई
ज़िंदगी खेल के पर्दे का वो रुख़ है जिस से
झाँक कर अपना तमाशा है दिखाता कोई