पयाम-ए-हस्ती
(अज़ीमुद्दीन अहमद)
तबस्सुम की हवस हो बर्क़ के आसार पैदा कर
जो गर ये आरज़ू हो चश्म-ए-दरिया-बार पैदा कर
मरज़ ही क्या मुदावा जिस का आसाँ हो तबीबों पर
न पहचाने मसीहा जिस को वो आज़ार पैदा कर
तुझे ऐ दिल अदू को हो अगर चुभती हुई कहना
तो हर हर हर्फ़ में तेज़ी-ए-नोक-ए-ख़ार पैदा कर
अगर इस मज्लिस-गेती में औरों को रुलाता है
दिल-ए-दर्द-आश्ना-ओ-दीदा-ए-ख़ूँ-बार पैदा कर
तुझे ये हिम्मत-ए-मर्दाना कहती है कि ऐसा दिल
जो क़ब्ल अज़-मौत ही मरने पे हो तय्यार पैदा कर
तनाज़ा-लिल-बक़ा जारी है तो मैदान-ए-हस्ती में
न हो जिस की सिपर ऐसी कोई तलवार पैदा कर
बका-ए-अक़विया के मसअला पर बहस से पहले
तन-ए-सुहराब-ओ-ज़ोर-ए-हैदर-ए-कर्रार पैदा कर
जो इस आलम में चलना है तुझे हुक्म-ए-अइद्दू पर
तो इस्तेदाद-ए-दफ़ा-ए-हमला-ए-अग़्यार पैदा कर
अगर मंज़ूर है तुझ को मिले आलम की चौपानी
तो अपने पाँव में फिर गर्दिश-ए-पर्कार पैदा कर
अगर है चूकना मंज़ूर क़ुराँ की तिलावत से
बरा-ए-ज़ख़्म-ए-ग़फ़लत मरहम-ए-ज़ंगार पैदा कर
अगर तेरी तमन्ना है कि शायान-ए-ख़िलाफ़त हो
तो शौक़-ए-बंदगी-ए-वाहिद-ए-क़हहार पैदा कर